पेड़ कितन भी उँचा क्यूँ ना उठ जाए, उसकी जड़ काटने से या फिर जड़ों को पानी ना प्राप्त ना होने हेतु उस पेड़ का अस्तित्वा नहीं रहता..
साल बीत गये मेरी अनेक कोशिश में..
अपने जीवन में सुधार करने में..
लेकिन हमेशा एक ही परिणाम - नाकामियाबी ।
कहते हैं कि हर हार एक बड़ी जीत के लिए नई शुरुआत को जन्म देती है.. लेकिन क्या यह आशाओं से भरा नज़रों पर एक चश्मा और चेहरे पर एक मुखौटा है या फिर ऐसी सोच ही मेरी ज़िंदगी के निराशावाद भरा डर?
सच्चाई क्या है?
सोचें तो सच्चाई सिर्फ़ इन पलों की जड़ में है.. यह पल जो मैं जी रहा हूँ.. गर साहस ना हारू तो यही आशा, यदि अपने आप को भी ना जान सकूँ तब सब कुछ निराशा ।
सोचता हूँ तो ख़याल आता है कि अपने अतीथ के साथ बिना किसी बैर, समझौते के साथ जीना ही मेरी जड़ है, जो मेरे आज और आने वाले पल को खुश रखेगा..
परंतु साँसों के साथ अब समझौता क्यूँ?
जब वही अतीथ में भरी साँसें जी थी तब कोई समझौता नहीं था.. हर नई साँस जीने के लिए पहले भरी साँस भी त्याग करनी होती है ।
जब मेरी साँस पर भी मेरा कोई हक़ नही, तो जो समय बीत गया उनपर आज अफ़सोस का हक़ क्यूँ?
मेरी साँस लुप्त, मेरा अतीथ भी लुप्त..
परंतु..
मैं लुप्त नही, मैं डरा नहीं, मैं हारा नहीं..
मेरी सोच जल.. मेरा आज मेरी जड़ ।1।
Note: Last Edit: May 1, 2017
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