आज फिर सुबह की आज़ान सुनी.. वही ठीक ६ बजे.. लेकिन मैं अभी तक सो नहीं पाया.. आँखों में नींद भारी हुई हैं, लेकिन साँसों मे एक कर्कश सी है जो ना जीने दे रही है चैन की नींद के लिए, और ना ही सोने दे रही है हमेशा की ज़िंदगी के लिए..
जहाँ चाह, वहाँ राह... यह वह चार शब्द है जिनके साथ मैं 2015 की शुरुआत करना चाहता था. साल अच्छा शुरू हुआ, फिर थोड़ी अनसनजस का माहौल हुआ, फिर पुराने दोस्तों से मिलना हुआ, साथ में घूमना हुआ.. वक़्त ने भावुक किया तो जीने का पफिर मन किया.. दफ़्तर मे तकरार, तो शायद पहली बार घर मे माँ पर चिल्लाने के लिए सामने से माफी माँगी, बताते हुए कि किसी का गुस्सा किसी पर निकल गया.. जब लगा की सब सही जा रहा है, पहली बार... तो फिर मैं गिर गया | दिन व्यर्थ, सोच नष्ट और मन फिर रोने को तरस रहा है..
मैं कौन हूँ ?? मैं ही क्यूँ ?? मेरी किस्मत मे ही ये क्यूँ ?? आज फिर एक बार जीवन पर रोक लगाने का बुज़दिल ख़याल आया.. रोना चाहता हूँ, जी भर कर ज़िंदगी को कोसना चाहता हूँ .. थक गया हूँ बार बार उठकर कर.. अब बस, अब और हिम्मत नही है मेरे आत्मा मे. हे वाहेगुरू, अब और इम्तेहान मत लो.. प्लीज़ यह बंद करो | "करम कर, फल की चिंता ना कर"... इस सोच को ज़िंदगी बनाई थी, और अभी भी इसी के साथ जी रहा हूँ | अपने साथ हुए हर बुरे , मेरे मन की विपरीत निर्णय को मैने अपने किसी ग़लत कर्म का भोग माना, लेकिन अब तो सासें भी तक गयी है.. इतना बुरा मैं नही. इतना बुरा मैं नही हूँ |
छठी कक्षा मे था जब से आपने ज़िंदगी मे इंतेहाँ पर इंतेहाँ रखे .. अकेला जी कर, सपनो की दुनिया मे खोया रहकर ज़िंदगी के सबसे नाज़ुक पल जीये. एक 12 साल का बच्चा था मैं.. क्या ग़लती की थी मैने जो ज़िंदगी मे इतना रोना, इतने मुश्किल पल लिख दिए ?? हाँ, नहीं भूलूंगा की खुशियों के पलों मे भी कोई कमी नही रखी | ज़िंदगी मे मुझे बहुत कुछ मिला, घरवालों से, दोस्तों और दुनिया से... उस सब के लिए तहे दिल से शुक्रिया... लेकिन अब और नही.. मुझे मेरी खुशियाँ बनाने का जितना हक और जज़्बा और लगान है, उतना ही मुझे अपने लिए दर्द सहने की शम्ता तैय करनी की आज़ादी भी दे दो, हे वाहेगुरू |
मैं जीना चाहता हू एक आम ज़िंदगी..
मैं मान चुका हूँ मैं समलैंगिक हूँ... कोई गिला शिकवा नही किसी से की क्यूँ किसी ने मुझे नही रोका इस ज़िंदगी में आते समय... जो मैं हूँ, मैं वही हूँ, भविष्या किसी ने नही देखा. यह ना कोई बिमारी है, ना ही मेरा निजी चुनाव .. किसी ने मुझे ना ही इस ज़िंदगी मे धखेला, ना ही मैं अपनी मर्ज़ी से ऐसा बना हूँ .. जिस तरह हमारी साँसों पर, और दिल की धड़कन पर कोई नियंत्रण नही, ठीक वेज़ी ही संलेंगिक होना या ना होना, अपने ही लिंग के इंसान के लिए शारीरिक भावना होना किसी के नियंत्रण मे नही... यह तो बस रीफ्लेक्स ऐक्शन है.. शूध हिन्दी मे बोलें तो "अनैच्छिक क्रिया"... अपनी छाया से जिस तरह नही भगा जा सकता, उसी तरह "अनैच्छिक क्रिया" पर भी कोई संतुलन नहीं.
पहले लगता था कि दुनिया के सामने मैं एक मुखौटा पह्न कर रहता हूँ, लेकिन अब ऐसा लगता है की मुखौटा तो कोई नही लेकिन आधा अधूरा सच दिल दिमाग़ आत्मा मे पानी से आधे भरे घड़े की तरह छलके जा रहा है. रोज़ शीशे मे देखता हूँ और अपने आप को नही पहचान पाता, हर तस्वीर एक धुंधली परछाई की तरह लगती है. अपने आप से मिलना चाहता हूँ, ढूँढना कचाहता हूँ "भवदीप" को. एक दर सता रहा है हर लम्हा की कहीं भूल ना जाऊं मैं हूँ कौन.
रो रो कर तक गया हूँ, अब तो दूसरों की अपने परिवार के सामने आने की कहानी पड़ने देखने से भी दर लगता है. हर पल अपने कमरे मे काटने को दौड़ता है. मैं ज़िम्मेदारी से भागना नही चाहता. मैं अपने सपने, अपने बचपन के हर मासूम और निष्कपट सपने को पूरा करना चाहता हूँ.. अपने परिवार को खुश देखना चाहता हूँ.. दुनिया मे खुशी लाने की अपनी महत्वकाँशा को सच करना चाहता हूँ.
पता नहीं मेरे शब्दों का कोई सार निकले किसी और के लिए, लेकिन यह मेरे मन की भड़ास नही, यह मेरे सासों की चीख है जो बाहर आना चाहती है. गुस्सा है जो ख़तम होना चाहता है. दर्द है जो भागना चाहता है.. दूर, बहुत दूर..
अब और नहीं.. बस, और नहीं!
जहाँ चाह, वहाँ राह... यह वह चार शब्द है जिनके साथ मैं 2015 की शुरुआत करना चाहता था. साल अच्छा शुरू हुआ, फिर थोड़ी अनसनजस का माहौल हुआ, फिर पुराने दोस्तों से मिलना हुआ, साथ में घूमना हुआ.. वक़्त ने भावुक किया तो जीने का पफिर मन किया.. दफ़्तर मे तकरार, तो शायद पहली बार घर मे माँ पर चिल्लाने के लिए सामने से माफी माँगी, बताते हुए कि किसी का गुस्सा किसी पर निकल गया.. जब लगा की सब सही जा रहा है, पहली बार... तो फिर मैं गिर गया | दिन व्यर्थ, सोच नष्ट और मन फिर रोने को तरस रहा है..
मैं कौन हूँ ?? मैं ही क्यूँ ?? मेरी किस्मत मे ही ये क्यूँ ?? आज फिर एक बार जीवन पर रोक लगाने का बुज़दिल ख़याल आया.. रोना चाहता हूँ, जी भर कर ज़िंदगी को कोसना चाहता हूँ .. थक गया हूँ बार बार उठकर कर.. अब बस, अब और हिम्मत नही है मेरे आत्मा मे. हे वाहेगुरू, अब और इम्तेहान मत लो.. प्लीज़ यह बंद करो | "करम कर, फल की चिंता ना कर"... इस सोच को ज़िंदगी बनाई थी, और अभी भी इसी के साथ जी रहा हूँ | अपने साथ हुए हर बुरे , मेरे मन की विपरीत निर्णय को मैने अपने किसी ग़लत कर्म का भोग माना, लेकिन अब तो सासें भी तक गयी है.. इतना बुरा मैं नही. इतना बुरा मैं नही हूँ |
छठी कक्षा मे था जब से आपने ज़िंदगी मे इंतेहाँ पर इंतेहाँ रखे .. अकेला जी कर, सपनो की दुनिया मे खोया रहकर ज़िंदगी के सबसे नाज़ुक पल जीये. एक 12 साल का बच्चा था मैं.. क्या ग़लती की थी मैने जो ज़िंदगी मे इतना रोना, इतने मुश्किल पल लिख दिए ?? हाँ, नहीं भूलूंगा की खुशियों के पलों मे भी कोई कमी नही रखी | ज़िंदगी मे मुझे बहुत कुछ मिला, घरवालों से, दोस्तों और दुनिया से... उस सब के लिए तहे दिल से शुक्रिया... लेकिन अब और नही.. मुझे मेरी खुशियाँ बनाने का जितना हक और जज़्बा और लगान है, उतना ही मुझे अपने लिए दर्द सहने की शम्ता तैय करनी की आज़ादी भी दे दो, हे वाहेगुरू |
मैं जीना चाहता हू एक आम ज़िंदगी..
मैं मान चुका हूँ मैं समलैंगिक हूँ... कोई गिला शिकवा नही किसी से की क्यूँ किसी ने मुझे नही रोका इस ज़िंदगी में आते समय... जो मैं हूँ, मैं वही हूँ, भविष्या किसी ने नही देखा. यह ना कोई बिमारी है, ना ही मेरा निजी चुनाव .. किसी ने मुझे ना ही इस ज़िंदगी मे धखेला, ना ही मैं अपनी मर्ज़ी से ऐसा बना हूँ .. जिस तरह हमारी साँसों पर, और दिल की धड़कन पर कोई नियंत्रण नही, ठीक वेज़ी ही संलेंगिक होना या ना होना, अपने ही लिंग के इंसान के लिए शारीरिक भावना होना किसी के नियंत्रण मे नही... यह तो बस रीफ्लेक्स ऐक्शन है.. शूध हिन्दी मे बोलें तो "अनैच्छिक क्रिया"... अपनी छाया से जिस तरह नही भगा जा सकता, उसी तरह "अनैच्छिक क्रिया" पर भी कोई संतुलन नहीं.
पहले लगता था कि दुनिया के सामने मैं एक मुखौटा पह्न कर रहता हूँ, लेकिन अब ऐसा लगता है की मुखौटा तो कोई नही लेकिन आधा अधूरा सच दिल दिमाग़ आत्मा मे पानी से आधे भरे घड़े की तरह छलके जा रहा है. रोज़ शीशे मे देखता हूँ और अपने आप को नही पहचान पाता, हर तस्वीर एक धुंधली परछाई की तरह लगती है. अपने आप से मिलना चाहता हूँ, ढूँढना कचाहता हूँ "भवदीप" को. एक दर सता रहा है हर लम्हा की कहीं भूल ना जाऊं मैं हूँ कौन.
रो रो कर तक गया हूँ, अब तो दूसरों की अपने परिवार के सामने आने की कहानी पड़ने देखने से भी दर लगता है. हर पल अपने कमरे मे काटने को दौड़ता है. मैं ज़िम्मेदारी से भागना नही चाहता. मैं अपने सपने, अपने बचपन के हर मासूम और निष्कपट सपने को पूरा करना चाहता हूँ.. अपने परिवार को खुश देखना चाहता हूँ.. दुनिया मे खुशी लाने की अपनी महत्वकाँशा को सच करना चाहता हूँ.
पता नहीं मेरे शब्दों का कोई सार निकले किसी और के लिए, लेकिन यह मेरे मन की भड़ास नही, यह मेरे सासों की चीख है जो बाहर आना चाहती है. गुस्सा है जो ख़तम होना चाहता है. दर्द है जो भागना चाहता है.. दूर, बहुत दूर..
अब और नहीं.. बस, और नहीं!
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