Friday, January 23, 2015

Protect Me From What I Want?

Frustrated; yet Hopeful!

If someone tells me this, and asks me to try finding an english word from the limited vocabulary I know of, I will use the word 'Bipolar' and this scares me to cries of the soul even as I continue typing every single character of this post.

I have forgotton account of the number of days since I have been coming back from work and end up feeling lonely in my own house, in my own room. For the longest I have been telling myself and few ears that I could that anything and everything wrong with my life is because of my bad Karma; and that God is testing me to extreme, That supreme power won't give me so much of pain if I could not handle it, or if I did not do this bad in my life. But its frustrating; it feels like every self belief being sucked out of my system now.

रब्बा मेरे कभी दर पे तेरे, कभी बुला तेरी चौकठ पे..
देदे और जो दर्द हो बाकी, रुला मुझे रज रज के..

Don't know how much of life is left for the saturation point of my inner cries. I don't want to sound like a whiny kid. Just yesterday only, I had those dreamy though at work that "Is this all really True or a Dream". Definitely not the first time and I hope it never ends because it does brings a smile on my face. I am living my dream and I hate co-relating my dream life with a "But". Its frustrating.

Over the past few days, even as I continue to feel completely shatteered at my helplessness to come out (pun intended) of my dilemma, I have been thinking of ways to share my true self. However questions continue to loom on in my mind, for instance:

Am I being selfish?
Will it be too much for others to accept?
Will I be accepted or will I only make my family really sad?
Will I end up inflicting a lifetime of worry?
How should I come out straight (pun again intended)? 
Should I continue my abstract writing?
Will a video sound dramatic, show off?
Who Am I really?

A recent simple and single thought of making a table of "what I like about myself and what I hate" had made me the most scared till date, I guess; even more than those memoirs I have previously penned or planned to pen. The scare is so deep as of now that I have been hastily trying to even ward off my thoughts feeling that I won't have anything to like about myself; anything that is visible to the world. Transient occupied for the physical part by being shallow?

I am just so tired. I think why me and why I can not be normal but..

Then I think of the two recent thoughts that have been helping me survive a severe breakdown.

First:
"Never act permanent decisions on temporary feelings"

However I am struggling really hard to know what really are my permanent feelings. Are my emotional outbursts temporary, because of loneliness and scared to go out in the world outside my cocoon and stop being scared of getting a bruise and just play like a child becuase its playing is what that every little child wants to, no matter how shabbily dressed or muddled up in dirt. Evening means playing.

Second: 
"Cinderella never asked for a prince. She asked for a night off and dress. Like not once did she says, "I want a prince to come and rescue me from my situation." She just wanted to look cute and turn the fuck up at the party."

The above is not a new thought I came across but don't know why I did not remember it. I mean, it speaks so much volume. Isn't it a most worthy extension of be getting love for being who you are, every ounce of yourself.

Writing every single word above is suddenly making full sense of the title of this blog. I only have to understand to whom is the title addressed to. It is a short film's title that must have given an nth view today, just before beginning this blog post, but somehow I felt I noticed little emotional moments I never did before. Maybe when I do the same with myself, I will know what really are my temporary feelings and what permanent self defining.

I am sure that day I will know what I want. Protect Me From What I Want, no more that day.

Monday, January 19, 2015

बस, और नहीं!

आज फिर सुबह की आज़ान सुनी.. वही ठीक ६ बजे.. लेकिन मैं अभी तक सो नहीं पाया.. आँखों में नींद भारी हुई हैं, लेकिन साँसों मे एक कर्कश सी है जो ना जीने दे रही है चैन की नींद के लिए, और ना ही सोने दे रही है हमेशा की ज़िंदगी के लिए..

जहाँ चाह, वहाँ राह... यह वह चार शब्द है जिनके साथ मैं 2015 की शुरुआत करना चाहता था. साल अच्छा शुरू हुआ, फिर थोड़ी अनसनजस का माहौल हुआ, फिर पुराने दोस्तों से मिलना हुआ, साथ में घूमना हुआ.. वक़्त ने भावुक किया तो जीने का पफिर मन किया.. दफ़्तर मे तकरार, तो शायद पहली बार घर मे माँ पर चिल्लाने के लिए सामने से माफी माँगी, बताते हुए कि किसी का गुस्सा किसी पर निकल गया.. जब लगा की सब सही जा रहा है, पहली बार... तो फिर मैं गिर गया | दिन व्यर्थ, सोच नष्ट और मन फिर रोने को तरस रहा है..

मैं कौन हूँ ?? मैं ही क्यूँ ?? मेरी किस्मत मे ही ये क्यूँ ?? आज फिर एक बार जीवन पर रोक लगाने का बुज़दिल ख़याल आया.. रोना चाहता हूँ, जी भर कर ज़िंदगी को कोसना चाहता हूँ .. थक गया हूँ बार बार उठकर कर.. अब बस, अब और हिम्मत नही है मेरे आत्मा मे. हे वाहेगुरू, अब और इम्तेहान मत लो.. प्लीज़ यह बंद करो | "करम कर, फल की चिंता ना कर"... इस सोच को ज़िंदगी बनाई थी, और अभी भी इसी के साथ जी रहा हूँ | अपने साथ हुए हर बुरे , मेरे मन की विपरीत निर्णय को मैने अपने किसी ग़लत कर्म का भोग माना, लेकिन अब तो सासें भी तक गयी है.. इतना बुरा मैं नही. इतना बुरा मैं नही हूँ |

छठी कक्षा मे था जब से आपने ज़िंदगी मे इंतेहाँ पर इंतेहाँ रखे .. अकेला जी कर, सपनो की दुनिया मे खोया रहकर ज़िंदगी के सबसे नाज़ुक पल जीये. एक 12 साल का बच्चा था मैं.. क्या ग़लती की थी मैने जो ज़िंदगी मे इतना रोना, इतने मुश्किल पल लिख दिए ?? हाँ, नहीं भूलूंगा की खुशियों के पलों मे भी कोई कमी नही रखी | ज़िंदगी मे मुझे बहुत कुछ मिला, घरवालों से, दोस्तों और दुनिया से... उस सब के लिए तहे दिल से शुक्रिया... लेकिन अब और नही.. मुझे मेरी खुशियाँ बनाने का जितना हक और जज़्बा और लगान है, उतना ही मुझे अपने लिए दर्द सहने की शम्ता तैय करनी की आज़ादी भी दे दो, हे वाहेगुरू |

मैं जीना चाहता हू एक आम ज़िंदगी..

मैं मान चुका हूँ मैं समलैंगिक हूँ... कोई गिला शिकवा नही किसी से की क्यूँ किसी ने मुझे नही रोका इस ज़िंदगी में आते समय... जो मैं हूँ, मैं वही हूँ, भविष्या किसी ने नही देखा. यह ना कोई बिमारी है, ना ही मेरा निजी चुनाव .. किसी ने मुझे ना ही इस ज़िंदगी मे धखेला, ना ही मैं अपनी मर्ज़ी से ऐसा बना हूँ .. जिस तरह हमारी साँसों पर, और दिल की धड़कन पर कोई नियंत्रण नही, ठीक वेज़ी ही संलेंगिक होना या ना होना, अपने ही लिंग के इंसान के लिए शारीरिक भावना होना किसी के नियंत्रण मे नही... यह तो बस रीफ्लेक्स ऐक्शन है.. शूध हिन्दी मे बोलें तो "अनैच्छिक क्रिया"... अपनी छाया से जिस तरह नही भगा जा सकता, उसी तरह "अनैच्छिक क्रिया" पर भी कोई संतुलन नहीं.

पहले लगता था कि दुनिया के सामने मैं एक मुखौटा पह्न कर रहता हूँ, लेकिन अब ऐसा लगता है की मुखौटा तो कोई नही लेकिन आधा अधूरा सच दिल दिमाग़ आत्मा मे पानी से आधे भरे घड़े की तरह छलके जा रहा है. रोज़ शीशे मे देखता हूँ और अपने आप को नही पहचान पाता, हर तस्वीर एक धुंधली परछाई की तरह लगती है. अपने आप से मिलना चाहता हूँ, ढूँढना कचाहता हूँ "भवदीप" को. एक दर सता रहा है हर लम्हा की कहीं भूल ना जाऊं मैं हूँ कौन.

रो रो कर तक गया हूँ, अब तो दूसरों की अपने परिवार के सामने आने की कहानी पड़ने देखने से भी दर लगता है. हर पल अपने कमरे मे काटने को दौड़ता है. मैं ज़िम्मेदारी से भागना नही चाहता. मैं अपने सपने, अपने बचपन के हर मासूम और निष्कपट सपने को पूरा करना चाहता हूँ.. अपने परिवार को खुश देखना चाहता हूँ.. दुनिया मे खुशी लाने की अपनी महत्वकाँशा को सच करना चाहता हूँ.

पता नहीं मेरे शब्दों का कोई सार निकले किसी और के लिए, लेकिन यह मेरे मन की भड़ास नही, यह मेरे सासों की चीख है जो बाहर आना चाहती है. गुस्सा है जो ख़तम होना चाहता है. दर्द है जो भागना चाहता है.. दूर, बहुत दूर..

अब और नहीं.. बस, और नहीं!



Memoir of a Farewell

  "Do you even know who goes to church on Thursday? Losers". That's Missy to Mandy in the Season Finale of Young Sheldon. I do...